गोस्वामी जी! पाप धोने का अच्छा मौका है
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अजय औदीच्य
दो दिन से दिमाग में इस सवाल की गांठ उलझकर सिरदर्द कर रही थी कि क्या भारत सरकार इतनी विकलांग हो गई है कि पिछले करीब डेढ़ महीने से लॉकडाउन के चलते शहरों में फंसे कामगारों को ट्रेनों से उनके घर नहीं पहुंचा सकती? दो दिन पहले तब राहत मिली, जब सरकार ने श्रमिक ट्रेनें चलाकर कामगारों को उनके घर वापस भेजने का निर्णय लिया। लेकिन यह क्या? इसके लिये उनसे पूरा किराया भी वसूलने का फरमान जारी कर दिया। आश्चर्य, कि सरकार ने नहीं सोचा कि खून-पसीना बहाकर अपनी मेहनत की कमाई लॉकडाउन के चलते खर्च कर चुके मजदूर ट्रेन का किराया कहां से देंगे? मजदूरों का पेट भरने के लिये कारखानेदारों, ठेकेदारों और सामाजिक संगठनों से भोजन मुहैया कराने की अपील करने वाली सरकार का खुद का नंबर आया तो उसने हाथ ऊपर कर दिये और तंगहाल मजदूरों से किराया वसूलने का बेरहम निर्णय ले लिया। यकीनन यह निर्णय शर्मनाक है। भले ही सत्ताधारी दल के नेता और कार्यकर्ता इसे राजनीति कहें, लेकिन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने श्रमिक ट्रेनों से अपने घर लौटने वाले मजदूरों का किराया अपनी पार्टी से भुगतान करने का ऐलान कर दिया। मानवीय दृष्टि से देखें तो भाजपाई भक्तों को भी राजनीति से परे जाकर कम से कम इस ऐलान पर सोनिया गांधी को साधुवाद देना चाहिए। सवाल यह है कि क्या आर रिपब्लिक चैनल के संपादक अर्नव गोस्वामी इस ऐलान पर अपनी राय व्यक्त करेंगे? पिछले दिनों महाराष्टÑ में दो साधुओं की हत्या (हालांकि साधु और पुजारी की हत्या के मामले बाद में भी सामने आए हैं और अर्नव ने खामोश रहकर बदतमीजी की पुनरावृत्ति नहीं की) को लेकर सोनिया गांधी पर अमर्यादित सवाल उठाने वाले यह महाशय क्या कंगाल हो चुके मजदूरों से ट्रेन किराया वसूलने का निर्णय लेने वाली सरकार से सवाल पूछेंगे? मेरी राय में अगर अर्नव इस मसले पर निर्भीकता के साथ सोनिया की तारीफ करें और सरकार पर सवाल उठाएं तो उनके पाप कुछ हद तक धुल सकते हैं। हालांकि इसकी उम्मीद नहीं है। धारा के विपरीत चलने का साहस दिखाने वाले पत्रकार ही ऐसा कर सकते हैं, जो अर्नव हरगिज नहीं हैं। मुझे पता है कि मेरा आलेख पढ़ने वाले कुछ लोग मुझ पर कॉन्ग्रेस भक्त होने की तोहमत लगाएंगे, लेकिन सरकार और अर्नव गोस्वामी जैसों को आईना दिखाने से रोकना मुमकिन नहीं होगा। यहां यह बताना जरूरी है कि लेबर सेस के नाम से सरकार ने श्रमिकों के कल्याण के लिये अरबों रुपया जुटाया हुआ है। वह चाहती तो यह रकम वापस लौटाकर श्रमिकों को लॉकडाउन के दौरान का वेतन भी दे सकती है और बिना किराया वसूले उन्हें उनके घर भेजने का इंतजाम भी कर सकती है। देशभर के रेलवे कॉन्ट्रैक्टर्स की संस्था इरिपा ने यह रकम लौटाने की मांग भी की है, जिस पर सरकार मौन धारण किये हुए है। कहना गलत नहीं होगा कि इन हालात में जब लॉकडाउन पूरी तरह खुलेगा और परियोजनाओं के निर्माण के लिये जब मजदूरों के गांव से वापस लौटने का वक्त आएगा तो फिर यही सवाल उठेगा कि उनकी वापसी कैसे संभव होगी? गांव लौटने वाले मजदूरों के पास क्या इतना पैसा होगा कि वे शहरों में जाकर किराए के घर ले सकेंगे और ट्रेनों का किराया दे सकेंगे?