होली है


होली है
होली महज एक सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व ही नहीं है, बल्कि इसके वैज्ञानिक महत्व भी हैं। सही बात यह है कि सनातन (हिंदू) धर्म में सभी त्यौहार गहरे अर्थ लिये होते हैं और होली तो इनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण पर्व है। दरअसल, प्रत्येक मास की पूर्णिमा किसी न किसी उत्सव के रूप में मनाई जाती है। फिर फल्गुन खास उत्सव मास होता है और होली इसी मास की पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। फाल्गुन पूर्णिमा हिंदू पंचांग के अनुसार वर्ष का अंतिम दिन होता है। इससे आठ दिन पूर्व होलाष्टक आरंभ हो जाते हैं।
पूनम भट्ट
नई दिल्ली
रंगों का पर्व होली एक सांस्कृतिक, धार्मिक और पारंपरिक त्यौहार है। होली वसंतोत्सव के रूप में फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन होती है। हिंदू पंचांग के अनुसार वर्ष के इस अंतिम दिन का आध्यात्म और विज्ञान से सीधा नाता होता है। यह बताना जरूरी है कि आध्यात्म का आधार विज्ञान ही है और यही कारण है कि सनातन धर्म के आधाारों को कभी कोई नहीं हिला सकता। होली से आठ दिन पूर्व होलाष्टक आरंभ हो जाते हैं। अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक के समय में कोई शुभ कार्य या नया कार्य आरंभ करना शास्त्रों के अनुसार वर्जित माना गया है। 
होलाष्टक के आठ दिनों में नवग्रह भी उग्र रूप में होते हैं, इसलिए इन दिनों में किए गए शुभ कार्यों में अमंगल होने की आशंका रहती है। होली शब्द का संबंध होलिका दहन से भी है अर्थात पिछले वर्ष की गल्तियां एवं वैर-भाव को भुलाकर इस दिन एक-दूसरे को रंग लगाकर, गले मिलकर रिश्तों को नए सिरे से आरंभ किया जाए। इस प्रकार होली भाईचारे, आपसी प्रेम एवं सद्भावना का पर्व है। विविध रिवाज-परंपराएं होली, भारतीय समाज में लोकजनों की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का आईना है। परिवार को समाज से जोड़ने के लिए होली जैसे पर्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार होली उत्तर प्रदेश के ब्रजमंडल में ह्यलट्ठमार होलीह्ण के रूप में, असम में ह्यफगवाहह्ण या ह्यदेओलह्ण, बंगाल में ह्यढोल पूर्णिमाह्ण और नेपाल देश में ह्यफागुह्ण नामों से लोकप्रिय है। मुगल साम्राज्य के समय होली की तैयारियां कई दिन पहले ही प्रारंभ हो जाती थीं। मुगलों के द्वारा होली खेलने के प्रमाण कई ऐतिहासिक पुस्तकों में मिलते हैं। सम्राट अकबर, हुमायूं, जहांगीर, शाहजहां और बहादुरशाह जफर ऐसे बादशाह थे, जिनके समय में होली उल्लास से खेली जाती थी।
सही मायने में होली यह संदेश लेकर आती है कि जीवन में आनंद, प्रेम, संतोष और दिव्यता होनी चाहिए। जब मनुष्य इन सबका अनुभव करता है तो उसके अंत:करण में उत्सव का भाव पैदा होता है, जिससे जीवन स्वाभाविक रूप से रंगमय हो जाता हैं। रंगों का पर्व यह भी सिखाता है कि काम, क्रोध, मद, मोह औरं लोभ रूपी दोषों को त्यागकर ईश्वर भक्ति में मन लगाना चाहिए। पौराणिक मान्यताएं हिंदू धर्म के अनुसार होलिका दहन, मुख्य रूप से भक्त प्रह्लाद की याद में किया जाता है। भक्त प्रह्लाद राक्षस कुल में जन्मे थे, परंतु वे भगवान नारायण के अनन्य भक्त थे। उनके पिता हिरण्यकश्यप को उनकी ईश्वर भक्ति अच्छी नहीं लगती थी, इसलिए हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को अनेक प्रकार से कष्ट दिए। उनकी बुआ होलिका को वरदान मिला हुआ था कि वह अग्नि में जल नहीं सकती है। होलिका भक्त प्रह्लाद को मारने के लिए उन्हें गोद में लेकर आग में बैठ गई। भक्त प्रह्लाद की विष्णु भक्ति के फलस्वरूप होलिका जल गई और प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ। होली का पर्व राधा-कृष्ण के पवित्र प्रेम से भी जुड़ा है। श्रीकृष्ण और राधा की मथुरा, वृंदावन, बरसाने की होली के साथ ही होली के उत्सव की शुरूआत हुई। 
होली की पूर्वसंध्या पर होलिका दहन से पूर्व अग्निदेव की पूजा का विधान है। अग्निदेव पंचतत्वों में प्रमुख माने जाते हैं, जो सभी जीवात्माओं के शरीर में अग्नि तत्व के रूप में रहते हैं। अग्निदेव सभी जीवों के साथ एक समान न्याय करते हैं। इसलिए सनातन धर्म को मानने वाले लोग भक्त प्रहलाद पर आए संकट को टालने और अग्निदेव द्वारा ताप के बदले उन्हें शीतलता देने की प्रार्थना करते हैं। हमारे सभी धर्मग्रंथों में होलिका दहन में मुहूर्त का विशेष ध्यान रखने की बात कही गई है। नारद पुराण के अनुसार अग्नि प्रज्ज्वलन फाल्गुन पूर्णिमा को भद्रारहित प्रदोषकाल में सर्वोत्तम माना गया है। होलिका दहन के समय परिवार के सभी सदस्यों को एक साथ नया अन्न (गेहूं,जौ,चना की हरी बालियों) को लेकर पवित्र अग्नि में समर्पित करना चाहिए। ऐसा करने से घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है। होलिका दहन की अग्नि को अति पवित्र माना गया है, इसलिए लोग इस अग्नि को अपने घर लाकर चूल्हा जलाते हैं। कहीं-कहीं तो इस अग्नि से अखंड दीप जलाने की भी परंपरा है। माना जाता है कि इससे न केवल कष्ट दूर होते हैं, सुख-समृद्धि भी आती है। 
होली के त्यौहार के बाद से शिशिर ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म का आरंभ होता है। आयुर्वेद के अनुसार दो ऋतुओं के संक्रमण काल में मानव शरीर रोग और बीमारियों से ग्रसित हो सकता है। इस ऋतु में शरीर में कफ की मात्रा बढ़ जाती है। वसंत ऋतु में तापमान बढ़ने पर कफ के शरीर से बाहर निकलने की प्रक्रिया में कफदोष पैदा होता है, जिसके कारण सर्दी, खांसी, सांस की बीमारियां, खसरा, चेचक आदि होते हैं। मध्यम तापमान होने के कारण यह मौसम शरीर में आलस्य भी पैदा करता है। इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से होलिका दहन के विधानों में आग जलाना, अग्नि परिक्रमा, नाचना, गाना आदि शामिल किए गए हैं। अग्नि की ताप जहां रोगाणुओं को नष्ट करती है, वहीं खेल-कूद की अन्य गतिविधियां शरीर में जड़ता नहीं आने देतीं। इससे कफ दोष दूर हो जाता है, शरीर की ऊर्जा और स्फूर्ति कायम रहती है और शरीर स्वस्थ रहता है।
हर रंग का है अपना महत्व 
रंग हमारी भावनाओं को दशार्ते हैं। रंगों के माध्यम से व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित होता है। यही कारण है कि हमारी भारतीय संस्कृति में होली का पर्व फूलों, रंग और गुलाल के साथ खेलकर मनाया जाता है। ज्योतिषीय आधार पर लाल रंग को देखें तो इस रंग से भूमि, भवन, साहस, पराक्रम के स्वामी मंगल ग्रह प्रसन्न रहते हैं। पीला रंग अहिंसा, प्रेम, आंनद और ज्ञान का प्रतीक है। यह रंग सौंदर्य और आध्यात्मिक तेज को तो निखारता ही है, इससे वृहस्पति देव भी प्रसन्न होकर अपनी कृपा बरसाते हैं। नारंगी रंग ज्ञान, ऊर्जा, शक्ति, प्रेम और आनंद का प्रतीक है। जीवन में इसके प्रयोग से मंगल और वृहस्पति की कृपा के साथ-साथ सूर्य देव की भी असीम कृपा बरसती है। सफेद रंग शांति, पावनता और सादगी को दशार्ता है, इस रंग के प्रयोग से चंद्रमा, शुक्र की कृपा बनी रहती है। नीला रंग साफ-सुथरा, निष्पापी, पारदर्शी, करुणामय, उच्च विचार होने का सूचक है। नीले रंग के प्रयोग से शनिदेव की कृपा बराबर बनी रहती है। हरा रंग खुशहाली, समृद्धि,उत्कर्ष, प्रेम, दया, पावनता का प्रतीक है। हरे रंग के प्रयोग से बुध ग्रह प्रसन्न रहते हैं। सौहार्दपूर्ण ढंग से होली खेलने से आस-पास की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त होती है एवं वहां सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। घर-परिवार पर देवी-देवताओं की कृपा बनी रहती है।