गली के कुत्ते और कोरोना
कोरोना से 5-6 हजार मौतों ने दुनिया भर को दहला दिया है, जबकि हमारे देश में इससे कहीं ज्यादा रेबीज, हार्ट अटैक, धूम्रपान, कैंसर, प्रदूषण और दुर्घटनाओं में मर जाते हैं। मौत के इन आंकड़ों पर कोई बात नहीं होती, ना ही इन मौतों को रोकने के लिये कोई ठोस कदम उठाए जाते हैं। इस लेख में इसी विषय पर व्यंग्य लिखा गया है।
रवि अरोड़ा
मेरी गली में आवारा कुत्तों की भरमार है। अधिकांश मुझे पहचानते हैं और मुझ पर नहीं भोंकते। मगर पता नहीं क्यों, मेरी कार से इनकी जान-पहचान नहीं है और कार के स्टार्ट होते ही भोंकने लगते हैं। शाम को जब घर लौटता हूँ तो गली के मोड़ पर ही मेरी कार के इंतजार में ये कुत्ते बैठे नजर आते हैं और घर के दरवाजे पर पहुँचने तक भोंकते हुए पीछा करते हैं। कार से उतरते हुए अक्सर डर लगता है कि कहीं ये मुझे काट न लें। हालाँकि कुछ ही सेकेंड के बाद मेरी गंध से कुत्ते मुझे पहचान लेते हैं, मगर फिर भी भय रहता ही है कि कभी इन्होंने मुझे नहीं पहचाना और कार से पहला पैर बाहर निकलते ही उस पर अपने दाँत गड़ा दिए तो? अब आप समझ सकते हैं डर कुत्तों के दाँत से अधिक रेबीज का ही होता है। वही रेबीज, जिसका मतलब है तकरीबन-तकरीबन मौत। कोई इलाज नहीं, कोई टोटका नहीं। मेरा डर हवाई भी नहीं है। देश में हर साल औसतन 25 हजार लोग रेबीज से ही तो मरते हैं। जी हाँ, यह आँकड़ा उस कोरोना वायरस से दुनिया भर में पिछले तीन महीनों में हुई मौतों से पाँच गुना ज्यादा है। अब यह रेबीज तो घर का जोगी है और कोरोना ठहरा आन गाँव का सिद्ध, सो इसकी कोई बात हम क्यों करेंगे? अब यूँ भी रेबीज में कोई सनसनी तो है नहीं, उसकी कोई न्यूज वैल्यू भी नहीं है, अत: उस पर बात का औचित्य भी क्या है?
रेबीज ही क्यों, हम भारतीयों की जान को और क्या कम बवाल हैं। सुबह शाम निठल्ले बैठकर पराँठे खाने से हम भारतीय दिल के रोगी हो गए हैं। आँकड़े बताते हैं कि हमारे मुल्क में 24.8 प्रतिशत लोग हार्ट अटैक से ही मरते हैं। सारा दिन बीड़ी- सिगरेट फूँककर और गुटका-तम्बाकू खा-खाकर हर मिनट 15-16 लोग मर रहे हैं। यानि हर साल पाँच लाख से ज्यादा। टीबी का हर पाँचवा रोगी भारतीय है। दुनिया भर में कैंसर से मरने वालों में हम भारतीयों की तादाद आधी है। घर-बाहर ऐसे हालात बन गए हैं कि मुल्क में साँस के रोगी ही पंद्रह करोड़ हो गये हैं। पंद्रह फीसदी भारतीय डायबिटिक हैं और इस रोग के मामले में दुनिया की राजधानी हमारा अपना देश है। स्वास्थ्य सेवाओं का आलम यह है कि सालाना 10 लाख से अधिक बच्चे तो जापानी बुखार जैसी छोटी-मोटी बीमारियों से ही काल के मुँह में चले जाते हैं। केवल बीमारियों को लेकर नहीं, जिÞंदगी के हर आयाम पर हमारे और हमारे सिस्टम के रंग-ढंग निराले हैं। डेड लाख लोग तो हर साल हम सड़क दुर्घटनाओं में ही गँवा देते हैं जबकि हेल्मेट पहनकर और ट्रेफिक नियमों के पालन जैसे छोटे-मोटे कामों से भी यह संख्या बहुत कम की जा सकती है। अब आप ही बताइये मुए इस कोरोना से हम काहे डरें?
कई बार तो लगता है कि कोरोना कोई वायरस नहीं, बल्कि कोई अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र है। कोई बिजनेस मोड्यूल है और कुछ बड़ी ताकतें इसके पीछे हैं। दुनिया भर को अपने हिसाब से हाँकने वाली ये शक्तियाँ सरकारों और मीडिया के एजेंडे भी तय कर रही हैं और इन्हीं के द्वारा धरती पर भय का बाजार खड़ा कर दिया गया है। इस भय से दुनिया भर में ताश के पत्ते फेंटे जाएँगे और लाभ-हानि के हकदार बदलेंगे। हिसाब लगाता हूँ तो पता चलता है कि कोरोना से हमारे मरने की सम्भावना इतनी भर ही है जितनी अन्तरिक्ष से किसी क्षुब्ध ग्रह यानि कोमेट की चपेट में आकर मरने की होगी । दुनिया में साढ़े सात अरब की आबादी में कोरोना से तीन महीने में केवल पाँच हजार लोगों की मौत को इससे अधिक गिना भी कैसे जाये। यंू भी जितने लोग इस वायरस से मर भी रहे हैं, उनमें ज्यादातर बुजुर्ग हैं। मगर क्या करें, वो डरा रहे हैं तो हम भी डर रहे हैं। अब मुझ जैसे अदने की क्या औकात है जो इतनी बड़ी ताकतों से भिड़ जाएं, सो अपने राम भी सुबह-शाम साबुन से मल-मलकर हाथ धो रहे हैं। मगर फिर भी सच कहूँ तो अब भी कोरोना से ज्यादा तो मुझे अपनी गली के कुत्तों से डर लग रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
गली के कुत्ते और कोरोना