गांधी का देश है, रहेगा
भोपाल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने एक बार फिर नाथूराम गोडसे पर श्रद्धा व्यक्त करके भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की फजीहत करा दी। मालेगांव के आतंकी धमाकों की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर को चुनाव लड़ाकर पहले भी भाजपा नेतृत्व को कटघरे में खड़ा किया जाता रहा। अब सांसद बनने के बाद उनके बयान सरकार और पार्टी को मुसीबत में डाल रहे हैं। आखिर क्या मजबूरी है कि भाजपा नेतृत्व प्रज्ञा को पार्टी से निकालने में झिझक महसूस कर रहा है?
अशोक कुमार पाठक
प्रयागराज
देश के पहले आतंकी नाथूराम गोडसे की आड़ में प्रज्ञा ठाकुर जैसे कुछ लोग चांद पर थूकने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें यह अहसास नहीं है कि वे गोडसे की जितनी माला जपेंगे, गांधी उतने ही बड़े होंगे। इसलिये, क्योंकि महात्मा गांधी भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिये सर्वमान्य और प्रासंगिक हैं। दुनिया भर में भारत को गांधी का देश यूं ही तो नहीं कहा जाता। उनके व्यक्तित्व की सर्वग्राह्यता है और उनके विचार व दर्शन की दुनिया कायल है। प्रज्ञा ठाकुर या उनके जैसे चंद लोग गांधी की आभा को कभी धूमिल नहीं कर पाएंगे।
मालेगांव ब्लास्ट में मुख्य अभियुक्त के बतौर लम्बी जेलयात्रा के बाद खराब सेहत की बिना पर जिस तरह प्रज्ञा ठाकुर जमानत पर रिहा हुर्इं और भाजपा ने उन्हें भोपाल से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के जवाब में लोकसभा चुनाव लड़ाया, भाजपा नेतृत्व ने सबको चौंका दिया था। चुनाव के दौरान नाथूराम गोडसे पर दिया उनके बयान ने समूची भाजपा को हिलाकर रख दिया था। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह कहना पड़ा कि वे गोडसे को देशभक्त कहे जाने की बात तो दूर, ऐसी सोच तक की निंदा करते हैं। मोदी ने कहा कि गांधी के आदर्श हमेशा मार्गदर्शक रहेंगे। उनकी विचारधारा हमेशा प्रासंगिक रहेगी। सच बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी अगर यह न कहते कि ह्यप्रज्ञा ठाकुर ने अपने बयान पर भले ही माफी मांग ली हो, लेकिन वे अपने मन से उन्हें कभी माफ नहीं कर पाएंगेह्ण, तो चुनाव में भाजपा का भट्टा बैठ गया होता। रही भोपाल सीट से प्रज्ञा के चुनाव जीतने की, तो पक्की बात है कि प्रज्ञा की जगह कोई भी प्रत्याशी होता, मोदी के नाम की आंधी में जीत जाता। प्रज्ञा की जीत को भोपाल की जनता की जीत कहने वालों की दलील में कोई दम नहीं है।
बहरहाल, पिछले महीने संसद के भीतर प्रज्ञा ठाकुर ने एक बार फिर गोडसे को राष्ट्रभक्त कहकर गांधी को अपमानित करने की गंदी कोशिश की और सरकार व भाजपा नेतृत्व की गांधी पर आस्था को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया। भले ही विदेशमंत्री राजनाथ सिंह ने प्रज्ञा के बयान पर तल्ख टिप्पणी की और लोकसभा की कार्यवाही से उनके बयान को निकालकर उन्हें आईना दिखाया गया, लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका है और लाख चाहने पर भी भाजपा व आरएसएस के लिये कींचड़ के दाग साफ करना आसान नहीं होगा। विपक्ष के इस सवाल का जवाब आसान नहीं होगा कि अगर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रज्ञा ठाकुर की सोच से इत्तफाक नहीं रखते तो उन्हें पार्टी में बनाए रखने की क्या मजबूरी है? अगर प्रधानमंत्री प्रज्ञा को मन से माफ नहीं कर सकते तो कौन सी ताकत उन्हें साथ रखने को मजबूर कर रही है।
यह हकीकत भुलाई नहीं जा सकती कि मालेगांव के आतंकी विस्फोट से क्लीनचिट न मिलने के बाद भी प्रज्ञा ठाकुर को चुनाव लड़ाया गया और चुनावों के दौरान गोडसे पर विवादित टिप्पणी के बाद प्रधानमंत्रीकी तल्ख टिप्पणी के बावजूद सरकार ने उन्हें केन्द्रीय सुरक्षा सलाहकार समिति का सदस्य बनाया। संसद में गोडसे की माला जपने के बाद हुए विरोध को दबाने के लिये सरकार ने प्रज्ञा ठाकुर को भले ही सुरक्षा सलाहकार समिति से निष्कासित कर दिया हो, लेकिन इस सवाल का जवाब आना भी जरूरी हो गया है कि महात्मा गांधी के बजाय उनके हत्यारे को आदर्श मानने वाली अनुशासनहीन कथित साध्वी को पार्टी से निकालने की हिम्मत भाजपा नेतृत्व क्यों नहीं दिखा पा रहा है?
हिंसा की समर्थक है प्रज्ञा ठाकुर
किसको नहीं पता कि महात्मा गांधी अहिंसा के पुजारी थे तो दूसरी ओर गोडसे की मानसिकता वाली प्रज्ञा ठाकुर हिंसा की समर्थक हैं? क्या हिंसा की पैरोकार को संसद में स्थान देना सही है? महात्मा गांधी की हत्या को जायज करार देने वालों की लाइन में सबसे आगे खड़ी दिखने वाली प्रज्ञा ठाकुर ने हिंसा की समर्थक होने का कई बार सबूत दिया है। अहिंसा के पुजारी को अपना आदर्श बताने से लेकर आतंकियों से लोहा लेते हुए पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की शहादत को अपने श्राप का प्रतिफल बताने तक प्रज्ञा ठाकुर ने खुद को हिंसा की समर्थक साबित किया है। गोडसे और करकरे को लेकर उनके बयानों के बाद बड़ी संख्या में लोग यह कहने लगे हैं कि हो न हो, प्रज्ञा ठाकुर मालेगांव ब्लास्ट में शामिल रही होंगी। सही बात तो यह है कि ऐसी महिला को ह्यसाध्वीह्ण कहने पर भी ऐतराज नाजायज नहीं है। कोई आतंक और हिंसा को जायज ठकराए तो उसे साधु या साध्वी कैसे माना जा सकता है। साधु समाज को इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोगों को राजनीतिक संरक्षण दिये जाने के पीछे आखिर किसकी सोच काम कर रही है? क्या महात्मा गांधी के आदर्शों और विचारों को अप्रासंगिक साबित करने का कोई अभियान चलाया जा रहा है? क्या भारत का इतिहास बदलने की कोई साजिश हो रही है? अगर हां तो बापू की 150वीं जयंती मनाने का नाटक क्यों किया जा रहा है? ये तमाम सवाल प्रज्ञा ठाकुर के व्यक्तित्व और उन्हें संसद पहुंचाने की हकीकत के इर्दगिर्द खड़े होते रहेंगे। कम से कम इस सवाल की गांठ खोलनी ही होगी कि प्रज्ञा ठाकुर जैसी शख्सियत को राजनीतिक संरक्षण मिलने की असली वजह क्या है?